Thursday 11 September 2014

साम्राज्य की लालसा..


युद्ध विनाश की वो भट्टी है,
जिसमे सैनिक झोंके जाते हैं।
जहाँ हर संवेदना मरती है,
रोज मानवता हारती है।।

जीवन मृत्यु बन रह जाती है,
मृत्यु ही जीवन हो जाती है।
यहाँ स्वार्थ परम धर्म बनता है,
पराजय शेष रह जाती है।।

चारों ओर क्रंदन चीत्कार है,
भयभीत नहीं अवसाद है।
ये साम्राज्य की लालसा ही,
रक्त पिपासा का व्यापार है।।

सब प्रयास अधूरे रह जाते हैं,
कोई स्वपन ना पूरे हो पाते हैं।
घमंड जाने क्यूँ इतना गहरा है,
यहाँ खंड खंड प्रत्येक चेहरा है।।

नश्वर संसार में कुछ शाश्वत नहीं,
फिर भी प्रकृति खिलवाड़ सहती है।
अपनी दयनीय अवस्था देखकर भी,
अट्टहास करती नए युग में प्रवेश पाती है।।

पीढियां आती हैं, पीढियां जाती हैं,
सैनकों की भट्टियाँ जलती रहती है।
दानवता सदैव प्रचंड रूप लेकर,
सदियों यूँही हाहाकार मचाती है।।

No comments:

Post a Comment