Friday 3 January 2014

रिश्तों का कडवा सच..


सफ़र मुझे तय करना था,
आसानी से तय कर लिया,
जितनी सीढीयां चढ़नी थी,
चढ़ कर वहां मैं पहुँच गया,
अब तू मुझसे अवकाश ले,
तेरा संग मुझे क्या करना है?

बड़ा हो गया हूँ मैं बच्चा नहीं,
तेरे साथ की अब वजह नहीं,
हर बार लौट आऊँ,क्यूँ जरुरी है?
स्वार्थ सिद्ध हुए,रास्ते अलग हुए,
साथ की चाह फिर क्यूँ अधूरी है?

तेरे कंधे पहले से मजबूत नहीं,
बूढ़े चेहरे पर हज़ार झुरियां हैं,
तुझ संग विचारों का मेल नहीं,
बहुत ख्वाब,मुझे पूरे करने हैं,
तेरे संग से कुछ हासिल नहीं,
तेरा साथ मुझे क्या करना है?

कौन हूँ,इससे अंतर क्या दिखता?
जैसा समझो कोई फर्क नहीं पड़ता,
रंग,रूप,भाषा, भिन्न हुए तो क्या?
सदियों से हर युग में मिलता हूँ,
हाड़ मांस का पुतला,नाम इंसान है। 

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