Monday 3 November 2014

बचपन..



सब कहते हैं ये नटखट बचपन
सपनो की रंगबिरंगी दुनिया है।

परियों की दंतकथाओं सा रोचक
शायद पंचतन्त्र सा ज्ञानवर्धक है।

काले बदलो का नमकीन पानी या
भीगी मिटटी की सौंधी खुशबु है।

साफ़ शीशे जैसी अपारदर्शी या
पिकासो के चित्र समान उलझा है।

हरी इमली सा खट्टा या फिर
कुरकुरे की तरह टेड़ा मेड़ा है।

हाथों से फिसलती हुई रेत या
हवा में तैरता हल्का नन्हा पंख है।

बंसी की मीठी धुन में मग्न या
कोयल की कुक सा मधुर है।

पहाड़ों की वादियों में गूंजता या
हरी घास का मखमली आसन है।

पंछी की मस्त उड़ान भरता या
मोर के फैले पंखों का नृत्य है।

नदिया का कलकल स्वर या
बहते झरने का निश्छल जल है।

हाथी की चाल की तरह मदमस्त
या शेर की शक्तिशाली दहाड़ है।

अभी यहाँ दिखाई देता है बचपन
पलक झपकते नज़रों से ओझल है।

Tuesday 14 October 2014

शठे शाठयम समाचरेत.. 


जब सास बहु की लड़ाई में सास का पलड़ा भारी हो तो बहु अपना गुस्सा कहाँ उतारे? उसे भी तो अपने क्रोध और क्षोभ से मुक्ति चाहिए? इसलिए उसने भी एक उपाय किया। वो उठी और पड़ोसी के घर के बाहर अपने घर का कूड़ा फैंक आई। पड़ोसी ने शालीनता से कूड़ा उठाकर डस्टबिन में डाल दिया। सिलसिला काफी दिनों तक यूँही चला।
एक दिन पड़ोसी ने बहु को बुलाया प्यार से समझाया। कोई असर नहीं हुआ। चतुर, चालाक सास बहु ने मिलकर फ़ौरन दुसरे पड़ोसियों को इक्कट्ठा किया और उलटे बेचारे पड़ोसी पर परेशान करने का इलज़ाम लगा दिया।
महिलाओं(सास-बहु) की बात पर सबको सहानभूति हुई। अब बहु को ज्यादा शय मिली। हर आये दिन कूड़ा कचरा पड़ोसी के दरवाज़े पर फैंका जाने लगा। कभी कभी तो अन्दर आँगन तक फैंक दिया। पोछे का गन्दा पानी भी डालना आरंभ किया।
अब पड़ोसी ने भी सबक सिखाने की ठानी। उसने अपने घर के बाहर दरवाज़े पर एक कुत्ता लाकर बाँध दिया। कुत्ता सुबह शाम खूब भौंकता था। काटने को दौड़ता था। उसने सबके दिन का चैन और रात की नींद हराम कर दी।
कुछ गली के कुत्ते भी आने शुरू हुए और कूड़े के ढेर को मुंह में दबाकर बहु के घर पर फैलाकर आने लगे।
धीरे धीरे बदमाश कुत्ते सारे मोहल्ले में भौंकने और उधम मचाने लगे। हर जगह गन्दगी फ़ैलाने लगे। मुहल्ले के बच्चों का घर निकलना मुहाल कर दिया। बाहर से आने वालों में खौफ पैदा किया।
सास बहु की जोड़ी फिर पड़ोसियों के घर शिकायत करने पहुंची। लेकिन अब की बार उनकी बात किसी ने ना सुनी। उलटे फटकार लगायी। बहु से ढक्कन वाला कूड़ेदान खरीद कर गली मोहल्ले में सफाई रखने का आदेश दिया।
सास-बहु की लड़ाई में अब बहु का गुस्सा घर पर ही फूटने लगा। पड़ोसी का घर आंगन भी साफ़ रहने लगा।
पड़ोसी की समझदारी काम आई। इसी बीच उसने मुनिसिपेल्टी की गाड़ी बुलवाई और आवारा कुत्ते पकड्वाकर सबकी खूब वाह वाही पायी।
अपने कुत्ते का दरवाज़े के पास पक्का घर बनवा दिया। इम्पोर्टेड बिस्कुट और दूध से उसका कटोरा भर दिया। कुत्ता भी प्रस्सन, शांत रहने लगा। अन्य पडोसी भी खुश हुए। बच्चे खेलने-खिलने लगे। बहु जब भी बाहर निकले कुत्ता गुर्राए तो बहु घर में वापिस छिप जाये।
बहु सोचे अब किसको गुहार लगाऊँ? पड़ोसी संग कैसे रिश्ते बनाऊं? जब सास से परेशान हो जाऊं तो किसके पास जाकर मन बहलाऊँ??

👉 ऊपर लिखित वाकये को भारत पाकिस्तान सीमा विवाद से जोड़कर न देखें।
कृपया बहु में नवाज़ शरीफ या किसी भी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री छवि न ढूंढें।
😀😀😀😀

Friday 19 September 2014

रिश्तों का बदरंग रूप...

अपने आस पास, चारों ओर जो देखा,
पढ़े लिखों लोगों का एक मेला मिला,
खुद को माँ कहलाने वाली सास दिखी,
आज के युग में ऐसी इक नार मिली।

इक दिन अगर उसी माँ रूपी सास को लगे
कि उसका होनहार बेटा चाहे कुछ भी करे,
घर से बाहर जाकर वो कोई भी खेल खेले,
सब जायज़ है, उसकी हर गलती माफ़ है।

उस पर रोना धोना शिकायत करना बेकार है,
अपनी माँ के घर लौट जाना अफसोसनाक है,
ससुराल में रहकर पति के अत्याचार सहे,
रिश्ते सही करने का बहु ही सारा प्रयास करे।

बहु तो बस उसे अच्छे कपडे पहनकर रिझाये,
सब्र करे और गूंगी गुडिया बनकर बैठ जाए,
बेटा कही भी जाए लेकिन लौट के घर आये,
तो इससे ज्यादा बहु और कुछ ना चाहे।

पति के सामने वो लड़की घुटने टेके,
कोई सवाल पूछने की हिम्मत न करे,
मार खाकर, अपमान सहकर भी चुप रहे,
परन्तु घर छोड़कर जाने की कोशिश भी ना करे।

शादी की है, सात फेरे लिए हैं, ये याद रखे,
हर वचन को पूरा करने की जिम्मेदारी निभाए,
अपने कन्धों पर लेकर रिश्तों का भार ढोए,
बच्चे पैदा करे, चुपचाप अपनी शादी बचाए।

अपने अनजान ग़म मिटाने के लिए बेटा,
अगर थोडा सा नशा करे तो क्या पाप है?
बहु रानी, युवा पीढ़ी का ये नया तरीका है,
आजकल का यही फैशन और सलीका है।

दुनिया के सामने ढोंग रचे, प्रपंच करे,
अच्छे और सच्चे होने का सास नाटक करे,
बहु का हर कदम पर साथ देने का वादा करे,
लेकिन फिर बेटे के क्रियाकलापों पर पर्दा डाले।

सास यही समझाती ये पुरुषों का समाज है,
पति तेरा परमेश्वर वो तो आदम जात है,
प्यार करे या तिरस्कार करे उसका व्यवहार है,
मुझे गर्व है क्यूंकि ये मेरे ही दिए संस्कार हैं।

ऐसी औरत जात का बोलो क्या हाल हो?
जो धोखा देकर मासूम की ज़िन्दगी खराब करे,
बेटे की हर गलती जान,अनजान बने, फरेब करे,
आप बताएं उस सास के साथ कैसा सलूक हो??

Thursday 11 September 2014

साम्राज्य की लालसा..


युद्ध विनाश की वो भट्टी है,
जिसमे सैनिक झोंके जाते हैं।
जहाँ हर संवेदना मरती है,
रोज मानवता हारती है।।

जीवन मृत्यु बन रह जाती है,
मृत्यु ही जीवन हो जाती है।
यहाँ स्वार्थ परम धर्म बनता है,
पराजय शेष रह जाती है।।

चारों ओर क्रंदन चीत्कार है,
भयभीत नहीं अवसाद है।
ये साम्राज्य की लालसा ही,
रक्त पिपासा का व्यापार है।।

सब प्रयास अधूरे रह जाते हैं,
कोई स्वपन ना पूरे हो पाते हैं।
घमंड जाने क्यूँ इतना गहरा है,
यहाँ खंड खंड प्रत्येक चेहरा है।।

नश्वर संसार में कुछ शाश्वत नहीं,
फिर भी प्रकृति खिलवाड़ सहती है।
अपनी दयनीय अवस्था देखकर भी,
अट्टहास करती नए युग में प्रवेश पाती है।।

पीढियां आती हैं, पीढियां जाती हैं,
सैनकों की भट्टियाँ जलती रहती है।
दानवता सदैव प्रचंड रूप लेकर,
सदियों यूँही हाहाकार मचाती है।।

Thursday 14 August 2014

विभाजन की टीस..


स्वतंत्रता दिवस आते ही लोगों में देशभक्ति की भावना जोर मारने लगती है। जन मानस अंग्रेजों की गुलामी से मिली मुक्ति पर भाव विभोर हो जाता है। हर कोई मुश्किल से मिली आज़ादी के रंग में सराबोर हो जाता है।
लेकिन आज़ादी के रंग के साथ मिला हमें एक रंग और भी है जिसका ज़िक्र सिर्फ वही करते हैं जिनका इससे वास्ता है। ये रंग उन लोगों का दुःख है जिन्होंने गुलाल के रंग के साथ विभाजन के समय खून का रंग भी देखा है। अपना घर-बाहर खोया और कितने अपनों को अपने सामने मौत के मुंह में जाते भी देखा है।
15 अगस्त 1947 का वो दिन जब एक विराट देश दो टुकड़ों में बाँट दिया गया। अपनों को पराया कर दिया। घर परिवार बाँट दिया।
उस एक दिन में बदली थी ना जाने कितने लाखों लोगों की तक़दीर। देश बदल गया। घर पीछे छूट गया। अपने ही देश में लोग शरणार्थी हो गए। राजा से रंक बन गए। साहूकार जैसे लोग दूसरों पर आश्रित हो गए। एक एक दाने को तरस गए।
सालों लगे अपनी ज़िन्दगी को समेटने में। जवानी बीत गए। बचपन मानों सपनों में खो गया। परियों की कहानी सा हो गया। पैदा हुए थे जिस मिटटी में उसे छूने को भी तरस गए। अपने बिछड़े वतन की हवा में सांस लेनी भी कभी नसीब नहीं हुई।
थोडा सा समान समेट कर अपने घर से निकले थे जो इस उम्मीद पर के एक दिन अपने घर लौट जायेंगे, वापिस वही सम्मान पाएंगे। कभी उस मिटटी की खुशबु भी ना सूंघ सके, उस ज़िन्दगी की एक झलक भी न देख सके।
अपनी दरो-दीवार को तरसते, मन में टीस लिए जहाँ जगह मिली, वहीँ बस गए। नए आशियाने बनाये। रोज़गार ढूंढें। उसी मिटटी के होकर रह गए। बरसों जीवन संघर्ष में बीत गया। उस पीढ़ी ने मानो सुख को कल्पना में ही महसूस किया।
एक नयी दुनिया में अपनी पहचान बनायीं.. फिर खो गए। 😢
#Parents #Independence #Partition #Refugees

Saturday 10 May 2014

MothersDay


माँ को भी तो मेरी याद आती होगी,
अपनी दुनियां से ही शायद पर माँ,
रोज छिपकर मुझे देखती तो होगी,
वहीं से मेरे आंसू भी पोंछती होगी।
मुद्दतें हो गयी हैं माँ तुझसे जुदा हुए,
मीठी आवाज़ सुने, तेरी सूरत देखे,
फिर भी हर पल जाने क्यूँ लगता है,
जैसे तू यहीं कहीं आस-पास है माँ।

Sunday 2 March 2014

Hunger और Hungry..

Hungry तो यहाँ सारे हैं..
कोई power hungry
तो कोई news hungry
किसी को कुर्सी का hunger
तो कोई वोट hungry
किसी को name hunger
तो कोई fame hungry
किसी को पेट का hunger
तो कोई रिश्वत hungry
किसी को शॉपिंग का hunger
तो कोई सैर सपाटा hungry
किसी को प्यार का hunger
तो कोई रिश्तों का hungry
किसी ज्ञान का hunger
तो कोई विज्ञान का hungry
किसी को नौकरी का hunger
तो कोई marks hungry
किसी को followers का hunger
तो कोई चमचागिरी का hungry..



चुनाव की सुगबुगाहट..


शहर में आज बड़ी ही खलबली है,
हर गली-कूचे में झंडियाँ लगी हैं।

टूटी सड़कों की लीपापोती हुई है,
ऊँची इमारते कुछ धुली धुली है।

हैंडपंप की हड़ताल खुल गयी है,
नलकों में पानी की बौछार हुई है।

सरकारी फाइलों की धूल हटी है,
बाबुओं के शरीर में चुस्ती आई है।

शिलान्यासों का दौर चल पड़ा है,
नयी स्कीमों की बाढ़ आन पड़ी है।

टेंट वाले की कुर्सियों की बिक्री हैं,
पान सिगरेट की दुकान में रौनक है।

आज भूखे भिखारी को हलवे के संग,
8-10 पूरी और दो भाजी भी मिली है।

सरपंच की मूछ में नई ताव दिखी है,
एक बार फिर उनकी पूछ जो हुई है।

गाँव भर ने 4 दिन पीटर स्कॉच पी है,
लम्पट छोकरों ने हरी गड्डियां छूई हैं।

पड़ोसी गाँव में सिलाई मशीन पहुंची है,
ट्रंक भर कम्बल,रजाई,मिक्सी आई हैं।

रैलियों के नाम पे नोटों की बरसात हुई है,
गाँव ने मेले जैसी रौनक फिर से देखी है।

नेता के कुर्ते पे बढ़िया कलफ़ चढ़ी है,
जैकेट भी तो काफी साफ सुथरी है।

आयाराम गयाराम की खूब चांदी हुई है,
पार्टियों को टिकटें बेचने की जो छूट है।

एक दूसरे को गालियाँ देने की दौड़ है,
भाषा कितनी अभद्र की मची होड़ है।

झूठे वायदों की मानों झड़ी लगी हुई है,
जनता को मुर्ख बनाने की रेस चल रही है।

लगता है ये चुनाव की सुगबुगाहट है,
तभी तो नेता ने जनता की सुध ली है।

Sunday 2 February 2014

कुदरत की सुन्दरता..

यूँही आज अचानक
जो मेरी आँख खुली,
आसमान को एकटक
मैं बस निहारती रही,
सुरमई सूरज के पीछे
बादलों की ओट मिली,
सूरज और बादलों की
आंख मिचोली दिखी,
हवा नन्ही पत्तियों संग
सरगोशियाँ करती मिली,
चिड़ियाँ चहचहाती हुई
उड गई  दूसरी गली,
पेड़ पौधे थे दमके हुए
कलियाँ खिली खिली,
रंग बिरंगी तितलियाँ
भंवरों की हंसी ठिठोली,
कुदरत की सुन्दरता
आज से पहले देखने को
क्यूँ मुझे नहीं मिली।

Friday 24 January 2014

जीवन का अंतिम सत्य..


अंतिम प्रहर,
अनजान सफ़र,
सुनसान डगर,
अंधकार गहन,
अनगिनत प्रश्न,
वेदना प्रबल,
श्वास विफल,
चेतना शिथिल,
मृत्यु निकट। 

Monday 20 January 2014

धरने पर बैठे मुख्यमंत्री का दर्द...

दिल्ली के CM यानि हमारे Sirji का दर्द-
मौसम ने साजिश की है। बारिश भी कांग्रेस/बीजेपी के साथ मिली हुई है। बड़े समुन्द्रों का बहुत पानी पिया हुआ है। बारिश के करप्शन को जनता के सामने लायेगे। ये सब मिलकर जितना मर्ज़ी षड्यंत्र कर लें, बारिश/सर्दी करा दें। लेकिन हमारा उत्साह कम नहीं होगा। हम जनता के अधिकार के लिए बारिश/सर्दी से भी लड़ेंगे। खांसी की परवाह किये बिना मुफ्लर पहन के डटे रहेंगे।
ये जो आरएसएस के लोग हैं, इन्होंने बारिश करवाने के लिए आसमान से बड़ी मीटिंग्स की हैं। ये कम्युनल बारिश है ताकि माइनॉरिटीज हमारे धरने में न आ सकें।
दिल्ली की पुलिस पहले तो चंदा उगराती है फिर जनता को धमकती है। और फिर पैसा शिंदे जी को मिलता है। वही पैसा समुन्दरों को शिन्देजी पहुंचाते हैं। ताकि जब भी कोई अनशन/ धरना हो, उसे विफल करो।
ये सब मिलकर बारिश में भी बड़े बड़े घरों में रहते हैं। बिना छाते और रेनकोट के बाहर तक नहीं निकलते। ये जनता की खांसी बुखार को क्या समझेंगे?
मोदी का सारा तंत्र इसके पीछे लगा है। अमित शाह को जिम्मेदारी दी है कि बारिश करवाते रहो जिससे मेरी खांसी बढती रहे और मैं स्टील के ग्लास से पानी न पी सकूँ।
ये पापी लोग और भ्रष्ट पार्टियाँ कितना भी जोर लगा लें। हमें हराना चाहते हैं तो कोई भी कोशिश कर लें। हम इन्हें मुंह तोड़ जवाब देंगे।

Friday 3 January 2014

रिश्तों का कडवा सच..


सफ़र मुझे तय करना था,
आसानी से तय कर लिया,
जितनी सीढीयां चढ़नी थी,
चढ़ कर वहां मैं पहुँच गया,
अब तू मुझसे अवकाश ले,
तेरा संग मुझे क्या करना है?

बड़ा हो गया हूँ मैं बच्चा नहीं,
तेरे साथ की अब वजह नहीं,
हर बार लौट आऊँ,क्यूँ जरुरी है?
स्वार्थ सिद्ध हुए,रास्ते अलग हुए,
साथ की चाह फिर क्यूँ अधूरी है?

तेरे कंधे पहले से मजबूत नहीं,
बूढ़े चेहरे पर हज़ार झुरियां हैं,
तुझ संग विचारों का मेल नहीं,
बहुत ख्वाब,मुझे पूरे करने हैं,
तेरे संग से कुछ हासिल नहीं,
तेरा साथ मुझे क्या करना है?

कौन हूँ,इससे अंतर क्या दिखता?
जैसा समझो कोई फर्क नहीं पड़ता,
रंग,रूप,भाषा, भिन्न हुए तो क्या?
सदियों से हर युग में मिलता हूँ,
हाड़ मांस का पुतला,नाम इंसान है।